जब में व्यंग पात्र बना
- देवकिशन राजपुरोहित
बात 1966-67 की है मैं राजकीय मल्टीपरपज हायर सैकण्डरी स्कूल चौहटन, जिला - बाड़मेर (राजस्थान) में सहायक अध्यापक था। चौहटन राजस्थान की पाकिस्तान सीमा के निकटवर्ती एवं गांव था और कस्बे मे तब्दील हो रहा था। मेरे प्रधानाचार्य दुर्गा प्रसाद जी शर्मा ने मेरे को साहित्य-संस्कृति का इंचार्ज बना रखा था। साप्ताहिक बाल सभाओं के मेरे द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रमों से उत्साहित हो कर प्रधानाचार्य जी ने मेरे को एक आदेष दिया कि स्कूल के वार्षिकोत्सव पर एक शानदार आयोजन व नाटक का आयोजन किया जावें।
कुछ नाटकों के चयन के बाद दुष्यन्त-षकुन्तला नाटक पर निर्णय हुआ। पूरा नाटक तैयार किया गया। उसमें संवादों का चयन इस प्रकार किया गया कि मार्मिकता मुंह बोलने लगी। अब इस नाटक में शकुन्तला किसे बनाया जावे और दुष्यन्त कौन हो ?
उस जमाने में आज की तरह न लड़कियों में इतना खुल्लापन था और न खुल कर कोई लड़की किसी लड़के के साथ प्रेम और आलिगंन बद्व होने को तैयार होती थी। एक लड़के ने दुष्यन्त बनना स्वीकार कर लिया। लड़का,गौरा,चिट्टा,हंसमुख पूरा लम्बा था और हमारी स्कूल में वह सब से सुन्दर था। मगर शकुन्तला की खोज अभी बाकी थी। एक दिन दुपहर को एक लड़की ने आकर झिझकते हुए शकुन्तला का रोल करने के लिए अपनी इच्छा प्रकट की। लड़की बहुत ही सुन्दर,रूपवती और उस जमाने की किसी सिने नायिका से कम नहीं थी। मैंने उसे पूरी तरह से समझा बुझा कर फाईनल कर लिया।
दूसरे दिन दुष्यन्त-षकुन्तला को आमने सामने किया। दोनों को उनके डायलाग समझा कर डायलाग याद करने के लिए दे दिए। एक दिन उनके डायलाग सुने फिर उन्हें आमने सामने डायलाग बुलाए। फिर धीरे धीरे रिहर्सल कराया और एक दिन उनका फाईनल रिहर्सल कराया। दोनांे के संवाद से आष्वस्त होने के बाद मैंने प्रधानाचार्य जी के सामने फाईनल रिहर्सल कराया। दोनों के रिहर्सल को देख कर प्रधानाचार्य जी आष्वस्त हो गये।
प्रधानाचार्य जी ने उप निदेषक षिक्षा जोधपुर श्री अहमद अलीजी और जिला षिक्षा अधिकारी बाड़मेर देवीसिंहजी डोगरा को भी आमंत्रित किया था। दोनों अतिथि एकं दिन पूर्व मे ही आ गए थे। मैंने नाटक वाले दिन दोनों को उपयुक्त वेष भूषा घारण करवाई उनका मैकअप किया लड़के को एक शानदार पौषाक विधायक फतेहसिंहजी के यहां से लाकर पहनाई थी जिसे पहन कर वे जोधपुर महाराजा के उत्सवों में जाया करते थे। दुष्यन्त एकदम राजकुमार लग रहा था। शकुन्तला के लिए पोकरजी खत्री को कट कर एक नई शादी शुदा लड़की की शादी की पौषाक घारण कराई। हाथों में हाथी दान्त का चूड़ा पहनाया मेंहदी लड़की रात को ही लगा ली थी। लड़की का मैकअप, काजल,टीकी सब करने पर वह इतनी सुन्दर लग रही थी जैसे वह कोई राजरानी ही हो। दोनों को पूरी तरह सजाकर और एक बार फिर रिहर्सल लिया। मैं बहुत अधिक उत्साहित था कि आज बड़े अफसरों के सामने मेरे कार्य का मूल्यांकन होने वाला था।
साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम में अनेक छात्र छात्राऐं एकल गान, एकल नृत्य, समूह गान, समूह नृत्य, एकाभिनय, वाद विवाद, भाषण कविता पाठ में भाग ले रहे थे। सब का क्रम मैंने ही निर्घारित किया
था और अन्त में नाटक होना था। सभी प्रतियोगिताओं को उपर्युक्त तरीके से तैयार कर एक बड़े कमरे में लिख दिया गया था। मंच के लिए एक आश्रम से और ठाकुर हेमसिंहजी, विधायक फतेह सिंहजी और समर्थसिंहजी के यहा से लकड़ी के बने पाटे मंगा लिए थे मंच निर्माण भी मेरी ही डयूटी थी। माईक बाड़मेर से मंगवाया गया था।
सारी तैयारी शाम 4 बजे ही हो गई थी। संध्या 7 बजे कार्यक्रम आरम्भ करना था। समय तो बीत ही नहीं रहा था जैसे घड़ी के सुए थम गए थे। बड़ी मुष्कील से 6 बजे और मैंने माईक टेस्ट किया। एक बाड़मेर के फोटो ग्राफर को भी बुला रखा था। उसने भी अपना कैमरा तैयार किया। उस समय ग्रामोफोन पर एक रिकार्ड लगाया जिसमें लतामंगेषकर का राष्ट्रभक्ति का गाना ‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों ’’बजाया जाने लगा प्रकाष व्यवस्था के लिए चार गैस जला लिए थे। ग्रामीण खूब आ गए थे। उस समय सोफो का चलन नहीं था इसलिए पाटों पर ही अतिथियों के लिए बिस्तर बिछा एि गए थे। प्रधानाचार्यजी ठीक सात बजे अतिथियों को लेकर आ गए। पूरे 7 जिलों के मण्डल जोधपुर के उपनिदेषक अहमद अलीजी मंच पर पधारे। उनके दाऐं बाये जिला षिक्षा अधिकारी बाड़मेर देवीसिंह जी डोगरा और हमारे प्रधानाचार्य दुर्गाप्रसाद जी शर्मा थे। मैं माचिस लेकर खड़ा था। सरस्वती के सामने दीप प्रज्वलन होना था। बार बार कई तिलियों से भी दीप प्रज्वलित नहीं हुआ आखिर बड़ी मुष्किल से दीप जला अतिथि अपने स्थान पर चले गए। सर्व प्रथम सरस्वती की स्तुति पं. लेखराजजी शर्मा ने की और फिर स्वागत गीत छात्राओं ने किया।
आखिर छोटे बड़े कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ मेरा नाटक दुष्यन्त शकुन्तला नाटक ने ऐसा समा बांधा कि कई बार तालियां बजी तो कई बार लोगो ने भावुक हो कर आसू भी पौंछे। पूरा डेढ घंटा नाटक विष्वामित्र से नाटक का आरम्भ और भरत के राज्यसिहासण पर समाप्त।
उस जमाने में आज की तरह अतिथियों के लिए कोई बड़ा ताम झाम नहीं होता था। न मालाऐं न साल न बुके और न साफे फिर सुदूर गांव में मालाओं का तो कोई सवाल ही नहीं। फिर भी दिन में 10 पैसे वाली रेषमीन 10 मालाएं मैने मंगा कर अतिथियों के स्वागत के लिए मंच पर रखी थी किन्तु अति उत्साह में मैं मालाओं से स्वागत भूल गया था। नाटक समापन पर था। मालाऐं मंच पर लटक रही थी। अहमद अली जी बहुत ही विद्धान, चतुर षिक्षा शास्त्री थे। उनकी मालाओं पर नजर पड़ गई थी। वे अपने स्थान से उठे साथ मे देवीसिंह जी और हमारे प्रधानाचार्य जी भी उठे अचानक मालाऐ लेकर मंच पर चढ़ गए। अभी कार्यक्रम समापन नहीं हुआ था। उन्होने कलाकारों से माईक ले लिया और खूब तारीफ भी की, उन्होने कहा मेरे अधीन 7 जिलों में ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम उन्होने कहीं नहीं देखा। एक माला दुष्यन्त को और एक माला शकुन्तला को पहना कर खूब आर्षीर्वाद दिया। दोनो बच्चे गद्गद् मेरी तो खुषी का ठिकाना ही नही था। अचानक वे मेरी ओर मुड़े शेष सात मालाऐं मेरे गले में डाली ओर मुझे बांहो में भर लिया। मेरी आंखो से खुषी की आश्रुधाराऐं बह निकली। मेरे वरिष्ट साथी तो जल भुन गए। यह वह जमाना था जब उपनिदेषक के सामने जिला षिक्षा अधिकारी और प्रधानाचार्य की तो जाने की हिम्मत तक नहीं होती थी। मेरी खुषी का कोई ठिकाना नही था। रात्रि बारह बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। छात्र और अध्यापक जा चुके थे कार्यक्रम के बाद में अतिथियों को भोजन कराना और उनके सोने की व्यवस्था भी मेरे जिम्मे थी। स्कूल के कमरों मंे खाट बिस्तर गांव के सम्पन्न लोगों से मांग कर लाए थे। लगभग दो बजे मैं जब कार्य मुक्त हुआ तो पास ही एक झोपड़े मे रहता था वहां चला गया। खुषी के मारे नींद का नामोनिषां नही था।
यही कोई चार बजे होगे। किसी ने दरवाजा खटखटाया तो तुरन्त दरवाजा खोला। बाहर शकुन्तला के पिताजी लालटेन लिए खड़े थे। उनके दो भाई और लड़का भी था। तपाक से पूछ बैठे- हमारी बच्ची कहाँ है। घर पर नहीं आई। अपनी सहेलियों के पास भी नहीं है।
मेरी सारी खुषियों पर पानी फिर गया। मै अपराधी की भांति कांपने लग गया। चपलें पहनी और उन्हे साथ लेकर दुष्यन्त के घर पहुचा। दुष्यन्त के पिता ने कहा वह तो घर आया ही नहीं। हमने सोचा शायद स्कूल में ही सो गया होगा। अब तो मामला ओर संगीन हो गया। लड़की ओर लड़का दोनांे लापता थे। उनके परिजन खोज बीन में लग गए। मैं घर ना जाकर वापस स्कूल गया। प्रधानाचार्यजी को पूरी जानकारी दी। जानकारी उन्होने अहमद अलीजी और देवीसिंहजी को दी। दोनों अधिकारी चाय पीकर जीप से बाड़मेर चले गये।
जंगल में आग की तरह खबर पूरे गांव में फैल गई। सारे मेरे साथी मास्टर बहुत खुष हुए। स्कूल खुलने से पहले ही वे स्कूल पंहुच गए। उपनिदेषक की शाबासी तो चार घंटे रही मगर मेरे साथियों की खुषियां और मेरी जलालत बढ़ गई। दिन भर साथी कहते रहे ओर करो नाटक! कोई कहता दुष्यन्त-षकुन्तला कहाँ है। मैं दुपहर को ही अपने झोपड़े में चला गया। मगर जो साथी मेरे मजे लेने वाले थे वे मेरे झोपड़े पर ही बारी बारी से आने लग गए। धैर्य बंघाते कि चिन्ता मत करो। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। गांव के भी भले भले आदमी आने लग गए। कैसे हुआ ? आपको पता नहीं था क्या ? सरपंच भगवानदास डोसी भी रात को कार्यक्रम में थे। आए। घैर्य बंधाया ओर बोले-पुलिस में कैस नही देना है वर्ना स्कूल ओर बच्चों की बदनामी हो जाएगी। क्या जबाब देता ? आखिर तीन दिन बाद दोनो जोधपुर में मिल गए उनके घर वालों ने भी पुलिस कैस बदनामी के कारण नहीं किया। मेरी सांस में सांस आई मगर टोटिंग निरन्तर जारी थी। मैं अब लोगों के व्यंग्य बाणों का षिकार था इन व्यंग्य बाणों ने आज तक मेरा पीछा नही छोडा है। स्थानान्तरण हो गया जब कभी भी पुराणे साथी मिलते तो देखते ही पहले मुस्कुराते ओर कह देते क्यो ? ओर कभी कोई नाटक कराया क्या अब आज भी वह घटना याद आती तो रोमांच हो जाता है। यदि उस समय आज जैसा इलेक्ट्रानिक मिडिया दिया होता तो .... ? यह विचार आते ही सिहर उठता हॅू।
सम्प्रति - 5 ई- 339 जयनारायण व्यास नगर
बीकानेर 334003
मो. 7976262808
कातंरच/हउंपसण्बवउ
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