देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां

पोथी : “देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां” 
(संचै : डॉ. नीरज दइया)
संस्करण 2017 कीमत 100/- 
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देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां इक्कीसवीं सदी में आज जद कहाणी केई मुकाम पार करती थकी जिण ठौड़ माथै आय ढूकी है उण में पठनीयता अर कथारस रो तोड़ो देख सकां। इण दौर में लोकभाषा में लिखीजी आं कहाणियां अर खास कर लोककथावां री हर कीं बेसी ई आवणी सुभाविक है। कहाणी परंपरा में कहाणी रो विगसाव भलाई किणी ठौड़ पूग जावो पण उण री जड़ां में लोककथावां रो कथारस पोख्यां ई ओ कथा-बिरछ पांगरैला। नीत-अनीत साम्हीं लोक-आरसी है- चावी लोककथावां। सांवठी संस्कृति अर बातपोसी रो नमूनो आं केई कहाणियां में देख सकां जिण में लोक न्याव अर अदल इंसाफ री बातां में निगै आवै। कहाणीकार देवकिशन राजपुरोहित की कहाणी जातरा नै इण संग्रै रै मारफत अेकठ देख्यां कहाणी विगसाव री बात करण मांय सुभीतो हुवैला।
देवकिशन राजपुरोहित (6 अक्टूबर, 1944) राजस्थानी भाषा, साहित्य अर संस्कृति रा लूंठा हिमायती। राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भाषावां में खूब लिख्यो अर अजेस ई लिखण-छपण में पाछ कोनी। पांच कहाणी-संग्रै- ‘वरजूड़ी रो तप’ (1970), ‘दांत कथावां’ (1971), ‘मौसर बंद’ (1989), ‘बटीड़’ (2003) ‘म्हारी कहाणियां’ (2007) रै अलावा विविध विधावां में केई पोथ्यां अर ग्रंथावली ई प्रकाशित। देस-विदेस री केई जातरावां अर पत्रकारिता रो लांबो अनुभव। केई मान-सम्मान अर पुरस्कारां सूं आदरीज्या दाना मिनख।
ई-मेल dkrajp@gmail.com / मो. 7976262808
नीरज दइया (22 सितंबर, 1968) कवि, आलोचक अर संपादक रूप ओळखाण। निर्मल वर्मा रै कथा-साहित्य माथै शोध। केई पोथ्यां राजस्थानी अर हिंदी में प्रकाशित। अनुवाद अर बाल साहित्य खातर प्रांतीय-राष्ट्रीय स्तर माथै सम्मानित चावा-ठावा रचनाकार।
ई-मेल drneerajdaiya@gmail.com / मो. 9461375668
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पोथी री भूमिका 
सांगोपांग कहाणीकार देवकिशन राजपुरोहित
   
    बरसां सूं देवकिशन राजपुरोहित राजस्थानी भाषा, साहित्य अर संस्कृति रा लूंठा हिमायती मानीजै। आप रो रंग-रूप, बोली-चाली अर लेखन-संपादन स्सौ कीं दूजा सूं न्यारो-निरवाळो, इसो कै कोई होड नीं कर सकै। बियां हरेक रचनाकार आपरै भांत रो निरवाळो ई हुया करै, पण इण निरवाळैपणै में देवकिशनजी री बात निरवाळी। म्हनै केई वेळा विचार आवै कै ओ धोळी दाड़ी-मूंछा, धोती-कुडतै अर पाग आळो बूढो बाबो असल में राजस्थानी संस्कृति नै उत्तर आधुनिक हुयोड़ै समाज में अजेस संभाळ’र राखण रा जतन ई नीं करै, साचाणी सांगोपांग जीवै।
आपरी भाषा, साहित्य अर संस्कृति री हेमाणी री संभाळ करणियां घणा कमती मिनख निगै आवै। बेमाता रा लेख कै हरेक मिनख रै काळजै भाषा, साहित्य अर संस्कृति आगूंच बस्योड़ा हुवै। पण आज रो बदळतो बगत आपां रै मांयलै सोनल संसार नै उजाड़तो जाय रैयो है। घणै सूतम री बात कै इण अबखी वेळा रो लखाव हुयां पछै ई च्यारूंमेर मून दीसै। इण बदळाव रै बगत आ लांठी बात मानीजैला कै बिना किणी लोक-दिखावै सरल-सहज जीवण में रमणिया मारवाड़ रतन देवकिशन राजपुरोहित रै हियै राजस्थानी खातर अणमाप-अणथाग हेत हिलोरा लेवै। राजस्थानी रै खातै आप नैं सदा हरावळ देख सकां।  
    राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भाषावां में देवकिशन राजपुरोहित बरसां सूं लगोलग लिख रैया है। आप खूब लिख्यो अर अजेस ई खूब लिखण-छपण में पाछ कोनी। न्यारी-न्यारी विधावां में राजपुरोहित जी री केई पोथ्यां अर ग्रंथावलियां आद प्रकाशित हुई। आप रै विराट व्यक्तित्व अर लेखन बाबत न्यारै-न्यारै विश्वविद्यालयां में केई शोध हुया अर ग्रंथ ई प्रकाशित हुया।
    देवकिशन राजपुरोहित रा पांच कहाणी-संग्रै राजस्थानी रै खातै- ‘वरजूड़ी रो तप’ (1970), ‘दांत कथावां’ (1971), ‘मौसर बंद’ (1989), ‘बटीड़’ (2003) ‘म्हारी कहाणियां’ (2007) छप्योड़ा। पैलड़ी तीन पोथ्यां छोटी-छोटी गुटका जिसी छपी, पण आगै री दोय पोथ्यां नै पूरी-पूरी पोथ्यां कैय सकां। राजस्थानी में पोथी प्रकाशन रै संकट नै देखता इसा लेखक साव कमती है जिकां रा पांच कहाणी-संग्रै प्रकाशित हुयोड़ा हुवै। इण पोथी ‘देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां’ नै तैयार करती बगत ध्यान राख्यो कै इण पोथी में लारली पोथ्यां सूं बानगी अेकठ साम्हीं आवै। आं कहाणियां में लोक-जीवण अर सांस्कृतिक-पख नै पोखण रा खास जतन कहाणीकार कर्या जिण सूं अै अजेस ई चावी-ठावी। आं रो पाठ आज ई जरूरी लखावै। आ कहाणियां में जीवण रो साच अर लोक री आत्मा जीवै, इणी खातर आज ई अै रचनावां बोदी नीं लखावै।
    देवकिशन राजपुरोहित (6 अक्टूबर, 1944) लगैटगै पच्चीस बरसां रै अैड़ै-गैड़ै कहाणियां लिखणी सरू करी। बरस 1970-71 रै आसै-पासै आधुनिक कहाणी रो जलम हुयो। ‘दांत कथावां’ इण बात रो परतख प्रमाण है कै लेखक लौकिक-साहित्य रै रंग में रंगीज्योड़ा हा। आपां रा चावा लोककथाकार विजयदान देथा अर दूजा कहाणीकारां दांई देवकिशन राजपुरोहित ई लोक में चावी छोटी-छोटी लोककथावां नै लिखित रूप ढाळण रो जसजोग काम कर्यो। भाषा रै लेखै ओ काम इण खातर घणो मेहतावू मानीजैला कै कहाणीकार लोक मांय चावी बातां नै सबदां में ढाळती बगत देसज सबद, ओखाणा, आड्यां, कहावतां-उगतियां अर दूहा-सोरठा आद नैं ई अंवेरै। लोक माथै किणी अेक रो घणियाप कोनी हुया करै- आ आपां री मोटी हेमाणी। कंठै रची-बसी आ कहाणियां नै लोक में बांचण, सुणण अर सुणावण रो सुख न्यारो-निरवाळो हुवै।
    लोककथावां री बुणगट अर कथारस में कैवणगत रो ऊंडो असर लियोड़ी आं बातां नै राजपुरोहित जी रै मूढ़ै सुणण रो रस सुणणियां ई जाण सकै, पण जस सबदां में नीं बखाण सकै। राज री नौकरी में जद देवकिशन जी मास्टर हा, आं कहाणियां रै मारफत आपरै बगत में बै घणा चावा रैया। आज ई जद बां रै मूंढै कोई कहाणी सुणां, तद लखावै कै सुणतां रैवां। मौकै-टोकै फबती अर ओपती बात कैवणी देवकिशनजी नै घणी आवै।  
    कहाणी-कला माथै विगतवार बात करां तो पैलै अर तीजै कहाणी-संग्रै रो नांव देख्यां ई ठाह लागै कै लोक-संस्कार अर समाज-सुधार आं कहाणियां रो खास सुर रैयो। कहाणी ‘वरजूड़ी रो तप’ में लोककथा री कैवणगत अर बरतकथा दांई नायिका वरजूड़ी रै तप रो बखाण करण री आंट आं ओळ्यां में देख सकां- “अेक ही छोरी। फूठरी फर्री। गोरी निचोर। नांव हो वरजूड़ी! चालती जाणै हथणी चालै। बोलती जाणै कोयलड़ी टहुकै। आंख्यां जाणै हिरणी सूं खोस’र लाई ही। व्हैला बरस पनरा’क री। मिसरी व्है ज्यूं मीठी बोलती ही। बिसी ईज वा गांव में फबती ही। वरजूड़ी आंख में घाल्योड़ी ई नीं खटकती।” कहाणी री छेहली ओळ्यां देखो- “पेमलो आपरै घरां आय’र सगळी बात लोगां नैं बताई। जद घासीरामजी माराज कैयो- वरजूड़ी रो तप पूरो व्हियो। अबै बा राजी-खुसी रैवै, आ ठाकुरजी सूं अरज करो।”
    देवकिशन राजपुरोहित री खासियत आ कै बै कला रै नांव माथै जूण रै किणी खास छिण का पल पतियारो नीं कर’र अेकठ अर बंधै-बंधायै आखै बगत नै अंवेरणो चावै। संजोग री प्रधानता आं कहाणियां री खासियत कैयी जावैला कै जिण सूं आं कहाणियां में बात कठै री कठै पूग’र आपरै मारग सीधी बधती जावै।
    आप री अेक चावी कहाणी ‘मौसर बंद’ में ठाकरां री ठरकाई साम्हीं जिको मास्टर लगोलग मंड’र जूझै, उण नै विगतवार बांच्या लखावै ओ कोई दूजो नीं खुद कहाणीकार देवकिशन राजपुरोहित ई हुय सकै। कहाणीकार मास्टर रूप हीरजी, ठाकरां रा कंवरां नैं समझाया हा कै थै मोसर मत मांडो। इण में कीं कोनी मिलै। गांव री स्कूल नैं बणाय’र नांव अमर करद्यो। मास्टर चावै कै गांव रा टाबरां री भणाई-लिखाई सावळ हुवै। उण रो ओ अेक सुपनो है, जिको बगत रै हाथां खोस लियो जावै। साथै ई उण साम्हीं नेम-कानून-कायदा री पोल-पट्टी ई प्रगट हुय जावै। ‘‘पेमजी होको गुड़गुड़ावता बोल्या- अरे थै तो अमल’र ओसर-मोसर बंद करण री बात कैवो हो, आ राज तो कैवै है कै टाबर ई बंद कर दो। दोन्यूं डोकरड़ा हंस्या।’’ जैड़ी ओळ्यां लोकमत नै बखाणै।
    आपां देख सकां कै अठै आजादी रै चाळीस बरसां पछै ई समाज रो असली कोढ ऊपरली आमदनी पांगर रैयो है। आ कहाणी बदळतै जुगबोध री व्यथा-कथा घणै वजनदार ढंग सूं मांड’र कैवै। ऊपरली आमदनी रो सोख राज में नीचै सूं लेय’र ऊपर तांई पसर्योड़ो है। नेम-कानून-कायदा रो भख लेवण में सगळा लाग जावै तद अेक मास्टर फगत ओळी- ‘मोसर बंद है’ सोचण रै सिवाय भळै कांई कर सकैै? भण्या-गुणिया थाणैदार, पटवारी, तहसीलदार अर अेसडीअेम रै मारफत समाज में विगसाव रा मारग मांयला आंटां सूं गुम जावण री जसजोग कहाणी है।
    कहाणी ‘बटीड़’ री बात करां तो आ नायिका तीजकी री बहादुरी री गिंगरथ नै बखाणै। इण कहाणी में घणी-लुगाई रै हेत बिचाळै संजोग अर रहस्य-रोमांच रो अनोखो मेळ देख सकां। “बा बोली- म्हनैं तो ठा कोनीं, पण हां! म्हैं लोटा रा तीन बटीड़ खांच’र मारिया पण ओ तो बापड़ो दूजा बटीड़ में ई मरगो। तीजो बटीड़ तो नफै खातै ई रैयो।” इण ओळी सूं सुभट देख सकां कै कहाणी में ओ तीजो बटीड़ नफै खातै चाल रैयो है। असल में आ लोक री बानगी है।
    लोक सूं जुड़ी आं कहाणियां में जूनी ओळूं री संभाळ है। आपां इण नै इयां मान सकां कै कहाणीकार री ओळू में थिर जूनो गांव अर लोक-विसवास रा चितरामां भेळै आपां रै माइतां री सीख अर संस्कार आपरी पळपळाट साथै अजेस आं कहाणियां में हरिया है। जुग-बदळाव अर उत्तर आधुनिकता री आंधी पछै ई आं कहाणियां में केई चितराम मिलै जिका किणी जूनी तसवीर दांई अजेस ई कहाणीकार सांभ’र राख्या है। इक्कीसवीं सदी में आज जद कहाणी केई मुकाम पार करती थकी जिण ठौड़ माथै आय ढूकी है, उण में पठनीयता अर कथारस रो तोड़ो देख सकां। इण दौर में लोकभाषा में लिखीजी आं कहाणियां अर खास कर नै लोक कहाणियां री हर कीं बेसी ई आवणी सुभाविक है। लोक री हेमाणी लियां देवकिशन राजपुरोहित आपरी कहाणियां में भरपूर कथारस नै सांभाळ’र राखण रा जतन करता साम्हीं आवै। 
    कहाणी परंपरा में कहाणी रो विगसाव भलाई किणी ठौड़ पूग जावो पण उण री जड़ां में लोककथावां रो कथारस पोख्यां ई ओ कथा-बिरछ पांगर सकैला। नीत-अनीतअर साच-कूड़ साम्हीं लोक रो आरसी है- चावी लोककथावां। सांगोपांग आपणी संस्कृति रा केई नमूना आ कहानियां में मिलैला जियां कै लोक न्याव अर अदल इंसाफ री बातां। आं कहाणियां में गांव अर केई चरित्र आपरै भोळपणै मांय जूनी ओळूं सजीव करै। हास्य अर व्यंग्य रै सांवठै मेळ सूं सजी राजपुरोहित जी री इण संग्रै री केई कहाणियां हियै ढूकती यादगार कहाणियां मानी जाय सकै।
    सार रूप में कैवां तो लोक में रची-बसी कथावां रा देवकिशन राजपुरोहित सांतरा कहाणीकार है। लोक में बै कथावां ई चावी रैवै जिण मांय कथारस भरपूर हुवै। लोक नै सीख अर दिसा देवण रो काम अै कहाणियां करती रैसी। पतियारो है कै पाठक आं कहाणियां रै मारफत लोकरंग, जीवण अर संस्कृति सूं खुद नै सिमरध करसी।
- नीरज दइया
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